गुरुवार, 9 जुलाई 2020

किसानों का दर्द समेटे मुक्तक

मुक्तक
किसानों की किसानी का कोई सानी नहीं जग में।
 इमां का खून बहता है कोई पानी नहीं रग में।
करोगे बेदखल हक से मिलोगे गर्त में सीधे।
है धरती का वह ईश्वर नहीं ईश्वर कोई नभ में।।

समेटे दर्द सीने में करे वो देश की सेवा।
उपज का मूल्य बस देदो नहीं चाहे कभी मेवा,
भले तुम ऐश की सारी हदों को पास में रख लो,
दे दो हक उसे उसका करें जो राष्ट्र की सेवा।।

सितम इतने हुए हम पर कहानी हालात कहती है।
हमारे खेत से नदिया हमेशा सूखी बहती है।
 भरे जो पेट जन जन का वही लाचार है भूखा।
तुम्हारे जुल्म की शोहरत यही हर बार कहती है।।

लहू के कतरे कतरे से फसल को सींचा है हमने।
मिला है भाव माटी सा खरीदा खरीदा हमसे है तुमने।
फसल इज्जत जो मेरी है लुटी है आज मंडी में।
हरे घावों की धरती पर नमक रगड़ा है फिर तुमने।।

करोगे जो कभी मेहनत किसानी जान जाओगे।
कटाई कर लो एकड़ भर तो हमको मान जाओगे।
चलाओ मुँह न मंचों से रहो औकात में अपनी।
दराती जो उठा ली तो हमें पहचान जाओगे।।

नहीं निकलेगा कोई हल अगर हल छोड़ जाएगा।
किसानी बंद कर देगा अगर मुख मोड़ जाएगा।
खनक सिक्कों की कैसे पेट को भरती बताओ तो।
रहेगी थाल फिर खाली जो नाता तोड़ जाएगा।।

पढूंगा दर्द ईश्वर का कहूँगा दर्द ईश्वर का।
नहीं निकला है अब तक हल लिखूँगा मर्ज ईश्वर का।।
किसानों को न मारो तुम सुनो सत्ता के वाशिंदों।
इबादत में करो शामिल जरा सा अर्क ईश्वर का।।

समंदर है बहुत गहरा ये आँसू हैं किसानो के।
तुम्हारे पेट को पाले ये जज़्बे हम दीवानो के।।
कभी भड़की अगन हक की चिताएँ गिन न पाओगे।
ठिकाने ये लगा देंगे वतन के बेईमानों के।।

करे दिन रात रखवाली तुम्हारे  पेट भरने को।
बुरे हालात हैं उसके न साँसे ज़िंदा रहने को।
लगेगी हाय ऐसी की कभी खुश रह न पाओगे।
करो तो काम तुम कुछ ऐसे कृषक की पीर हरने को।।

चलो मैं गीत लिखता हूँ खुशी के साथ गाऊँगा।
तेरे चारण में गाकर के खुशी से झूम जाऊँगा।।
कभी तुम भी समझ लो अन्न के दाता की मजबूरी।।
तुम्हारे दर पे नितदिन मैं सिर को झुकाउँगा।।

भला क्यों उसकी  हालत पर दया तुमको नहीं आती।
बेशर्मी से भरी बातें तुम्हें क्यों शर्म न आती।
बना दी कैसी हालात है यहाँ की राजनीति ने।
किसानी ऐसा रस्ता है कभी मंजिल नहीं आती।।

फसल सुखी लगा उसको लटक वो पेड़ से जाए।
हुई बारिश भयंकर जब वो रोता मेड़ से आए।।
जो थोड़ा कुछ बचे दाने बिकी मंडी में है इज्जत।
मरे न अन्नदाता रो बताओ तुम कँहा जाए।।


बिका ईमान है तेरा नजर  फसलें नहीं आतीं।
बहुत बातें यंहा होतीं मगर असलें नहीं आती।।
न जाने क्यों तुम्हें नफरत हुई मेरे किसानों से।
बने क्यों मुर्ख फिरते हो तुम्हें अकलें नहीं आतीं।।

किसानों की बुरी हालत बताओ दोष किसका है।
तुम्हें जो पलता भू पर नहीं अफ़सोस उसका है।।
जरा भी शर्म आती तो तुम्हें एहसास ये होता।
तुम्हारी इस सफलता में बताओ वोट किसका है।।

समर्पण राष्ट्र भक्ति का चलो तुमको दिखाऊं मैं।
भरे जो पेट जन जन का वही भूँखा दिखाऊँ मैं।।
जरा तुम भी घुसो कीचड़ में आकर संग तो मेरे।
हैं कितने जहन में छाले चलो तुमको दिखाऊँ मैं।।


सर्वाधिकार सुरक्षित
©®योगेश योगी किसान
योगेश मणि सिंह

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