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जनसंदेश न्यूज में प्रकशित मेरा लेख👇
*अपने ही देश मे विस्थापित किसान*
भारत एक कृषि प्रधान देश है यह हम सब सुनते हुए जमाने से आ रहे हैं लेकिन इसी कृषि प्रधान देश की एक कड़वी सच्चाई यह है कि किसान जो इस देश की रीढ़ है उसे कमजोर करने की तैयारी आजादी के बाद से ही शनैःशनैः जारी रही और अपने चरम पर पहुचने को तैयार खड़ी है। हम यूँ कहें कि किसान की रोटी के टुकड़ों पर पलने वाले इस देश ने आज किसान को ही टुकड़ों पर पलने वाला बना दिया है तो कोई अतिसंयोक्ति नहीं और इसका कारण है जिम्मेदार सरकारों का उद्योगपतियों ,पूंजीपतियों के पीछे पीछे दौड़ाने की होड़। किसान जिसकी जरूरत कुछ ज्यादा नहीं रही उसे अट्टालिकाएं और ये बाह्याडम्बर विकाश से कोई लेना देना नहीं रहा उसकी पहली माँग हमेशा से उसकी फसलों के लाभकारी उचित दाम रहे जिनको उसे कभी नहीं दिया गया और न देने की कोशिश की गई ,हाँ एम यस पी( न्यूनतम समर्थन मूल्य )के नाम पर उसके साथ छलावा जरूर किया गया। आजादी के बाद से ही पंचवर्षीय योजनाएं बनी जिसमे की पहली तीसरी और पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में किसान हित को सम्मलित किया गया लेकिन उसके बाद किसी पंचवर्षीय योजना में उसके हितों को न सम्मलित किया गया और न ही पूरा करने की चेस्टा की गई। न्यूनतम समर्थन मूल्य को जारी कर सरकारों ने अपनी पीठ ऐसे थपथपाई मानो किसान को स्वर्ग ही प्रदान कर दिया गया हो,जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की हकीकत किसी से छुपी नहीं रही पहली बात तो ये की उसमे किसान की फसलों के लाभकारी मूल्य नहीं दिए गए और दूसरी बात उन्हें लागू करने की और उससे संबंधित कानून बनाने को जरूरी नहीं समझा गया । उसका खमियाजा किसान ने भुगता एक तो एम यस पी में धोका ऊपर से इसी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उसकी फसलों को खरीदने कोई तैयार नहीं। वह आज भी उसी जगह खड़ा है जँहा पहले था, आधे से भी कम मूल्य पर फसलों को खरीदकर दलालों के द्वारा उसे लूटा जाता रहा है। सरकार के समक्ष जब जब किसानों ने ये बात उठाई तो जवाब यही मिला कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फसलों को खुद खरीदती है जबकी यह आँकड़े सिर्फ एक ढोंग के अलावा कुछ नहीं कृषि वैज्ञानिकों और सरकार के आंकड़ों को देखा जाए तो महज 13% उपज को ही सरकार समितियों और मंडियों के माध्यम से खरीदती है शेष 87% उपज तो आज भी दलालो और मंडियों के द्वारा कम मूल्य पर खरीदी जा रही है उसका क्या?
किसानों के लिए जरूरी स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट को लागू करना किसान हित मे है लेकिन इस रिपोर्ट को सिर्फ चुनावी मुद्दा बनाकर ही उपयोग किया जाता रहा और किसान हर बार यही सोच कर, कभी इसकी तो कभी उसकी सरकार बनाता रहा कि स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू हो जाएगी और उसके कष्ट दूर होंगे लेकिन उसे हमेशा मिला सरकार के रूप में पाँच वर्ष का प्रमाणित धोका,और ये पाँच -पाँच वर्ष करके मिलने वाला धोखा आजादी के आज इतने साल बाद भी जारी है।
देश ने तरक्की खूब की इसमे कोई दोराय नहीं लेकिन देश के किसानों ने कागजो पर तरक्की की यही हकीकत है।
किसानों ने जब जब आंदोलनों के माध्यम से अपनी बात उठानी चाही उसे नक्सली,आतंकी,देशद्रोही,विपक्ष का दलाल,वामपंथी न जाने कौन कौन सी संज्ञाएँ दी गईं। उसे हक के नाम पर कभी लाठी तो कभी गोली बस यही उसका जीवन रहा। आशाओं से भरा नंगे पैर ,अपने बच्चों को लिए हर बार उसने दिल्ली कूच किया कि शायद उसकी बात सुनी जाएगी विरोध स्वरूप उसने पेशाब पी ,चुहे तक खाय भुख हड़ताल की लेकिन सत्ताओं पर बैठे आकाओं ने कभी उसकी सुध नहीं ली चार कदम आकर ये तक नहीं पूँछा की पीड़ा क्या है? अब जब राज्यों में हुए चुनावों में किसानों ने आईना दिखाया तो अचानक से किसान प्रेम जागता दिखा लेकिन उस किसान प्रेम पर फिर एक बार हमेशा की तरह हिन्दू मुस्लिम और मंदिर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है ,लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि किसान आजादी के बाद अब जाकर जागा है जँहा उसने धर्म जाति के मुद्दों से ऊपर उठकर अपनी ताकत पहचानी है और सिर्फ अपने किसानी के हक के मुद्दों के लिए व्यवस्था परिवर्तन कर देश की राजनीति को आइना दिखाया है कि वह किसी जुमलों पर नहीं अपनी माँगों पर वोट करेगा। शायद यही वजह है कि देश की कुम्भकर्णी राजनीति में खलबली मच गई है,और किसानों के पीठ पूजने को हमेशा तैयार रहने वाली सरकार अब पैर पूजने की तैयारी करती दिखाई दे रही है।
*योगेश योगी किसान*
*प्रदेश अध्यक्ष किसान मोर्चा*
*राष्ट्रीय ओबीसी महासभा*
©लेख
जनसंदेश न्यूज में प्रकशित मेरा लेख👇
*अपने ही देश मे विस्थापित किसान*
भारत एक कृषि प्रधान देश है यह हम सब सुनते हुए जमाने से आ रहे हैं लेकिन इसी कृषि प्रधान देश की एक कड़वी सच्चाई यह है कि किसान जो इस देश की रीढ़ है उसे कमजोर करने की तैयारी आजादी के बाद से ही शनैःशनैः जारी रही और अपने चरम पर पहुचने को तैयार खड़ी है। हम यूँ कहें कि किसान की रोटी के टुकड़ों पर पलने वाले इस देश ने आज किसान को ही टुकड़ों पर पलने वाला बना दिया है तो कोई अतिसंयोक्ति नहीं और इसका कारण है जिम्मेदार सरकारों का उद्योगपतियों ,पूंजीपतियों के पीछे पीछे दौड़ाने की होड़। किसान जिसकी जरूरत कुछ ज्यादा नहीं रही उसे अट्टालिकाएं और ये बाह्याडम्बर विकाश से कोई लेना देना नहीं रहा उसकी पहली माँग हमेशा से उसकी फसलों के लाभकारी उचित दाम रहे जिनको उसे कभी नहीं दिया गया और न देने की कोशिश की गई ,हाँ एम यस पी( न्यूनतम समर्थन मूल्य )के नाम पर उसके साथ छलावा जरूर किया गया। आजादी के बाद से ही पंचवर्षीय योजनाएं बनी जिसमे की पहली तीसरी और पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में किसान हित को सम्मलित किया गया लेकिन उसके बाद किसी पंचवर्षीय योजना में उसके हितों को न सम्मलित किया गया और न ही पूरा करने की चेस्टा की गई। न्यूनतम समर्थन मूल्य को जारी कर सरकारों ने अपनी पीठ ऐसे थपथपाई मानो किसान को स्वर्ग ही प्रदान कर दिया गया हो,जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की हकीकत किसी से छुपी नहीं रही पहली बात तो ये की उसमे किसान की फसलों के लाभकारी मूल्य नहीं दिए गए और दूसरी बात उन्हें लागू करने की और उससे संबंधित कानून बनाने को जरूरी नहीं समझा गया । उसका खमियाजा किसान ने भुगता एक तो एम यस पी में धोका ऊपर से इसी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उसकी फसलों को खरीदने कोई तैयार नहीं। वह आज भी उसी जगह खड़ा है जँहा पहले था, आधे से भी कम मूल्य पर फसलों को खरीदकर दलालों के द्वारा उसे लूटा जाता रहा है। सरकार के समक्ष जब जब किसानों ने ये बात उठाई तो जवाब यही मिला कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फसलों को खुद खरीदती है जबकी यह आँकड़े सिर्फ एक ढोंग के अलावा कुछ नहीं कृषि वैज्ञानिकों और सरकार के आंकड़ों को देखा जाए तो महज 13% उपज को ही सरकार समितियों और मंडियों के माध्यम से खरीदती है शेष 87% उपज तो आज भी दलालो और मंडियों के द्वारा कम मूल्य पर खरीदी जा रही है उसका क्या?
किसानों के लिए जरूरी स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट को लागू करना किसान हित मे है लेकिन इस रिपोर्ट को सिर्फ चुनावी मुद्दा बनाकर ही उपयोग किया जाता रहा और किसान हर बार यही सोच कर, कभी इसकी तो कभी उसकी सरकार बनाता रहा कि स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू हो जाएगी और उसके कष्ट दूर होंगे लेकिन उसे हमेशा मिला सरकार के रूप में पाँच वर्ष का प्रमाणित धोका,और ये पाँच -पाँच वर्ष करके मिलने वाला धोखा आजादी के आज इतने साल बाद भी जारी है।
देश ने तरक्की खूब की इसमे कोई दोराय नहीं लेकिन देश के किसानों ने कागजो पर तरक्की की यही हकीकत है।
किसानों ने जब जब आंदोलनों के माध्यम से अपनी बात उठानी चाही उसे नक्सली,आतंकी,देशद्रोही,विपक्ष का दलाल,वामपंथी न जाने कौन कौन सी संज्ञाएँ दी गईं। उसे हक के नाम पर कभी लाठी तो कभी गोली बस यही उसका जीवन रहा। आशाओं से भरा नंगे पैर ,अपने बच्चों को लिए हर बार उसने दिल्ली कूच किया कि शायद उसकी बात सुनी जाएगी विरोध स्वरूप उसने पेशाब पी ,चुहे तक खाय भुख हड़ताल की लेकिन सत्ताओं पर बैठे आकाओं ने कभी उसकी सुध नहीं ली चार कदम आकर ये तक नहीं पूँछा की पीड़ा क्या है? अब जब राज्यों में हुए चुनावों में किसानों ने आईना दिखाया तो अचानक से किसान प्रेम जागता दिखा लेकिन उस किसान प्रेम पर फिर एक बार हमेशा की तरह हिन्दू मुस्लिम और मंदिर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है ,लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि किसान आजादी के बाद अब जाकर जागा है जँहा उसने धर्म जाति के मुद्दों से ऊपर उठकर अपनी ताकत पहचानी है और सिर्फ अपने किसानी के हक के मुद्दों के लिए व्यवस्था परिवर्तन कर देश की राजनीति को आइना दिखाया है कि वह किसी जुमलों पर नहीं अपनी माँगों पर वोट करेगा। शायद यही वजह है कि देश की कुम्भकर्णी राजनीति में खलबली मच गई है,और किसानों के पीठ पूजने को हमेशा तैयार रहने वाली सरकार अब पैर पूजने की तैयारी करती दिखाई दे रही है।
*योगेश योगी किसान*
*प्रदेश अध्यक्ष किसान मोर्चा*
*राष्ट्रीय ओबीसी महासभा*
©लेख
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